Monday, 24 June 2013

HISTORY of {सहस्त्रार्जुन} jaiswal SAmaj >>>>>

भारतवर्ष एक महान परम्पराओं का देश है। आज भी यहां के सामाजिक जीवन के रंगो में प्रचीन वंशो का रक्त उनके कुल गौरव एवम् सांस्कृतिक गरिमा को अन्तर्हित करते हुए प्रवाहमान है। जिन अनेक मूल-पुरूषों के नाम से इस राष्ट्र का सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन जाना जाता है, उनमें श्री सहस्त्रार्जुन का नाम भारत की अनेक जातियां अत्यंत श्रद्धा से स्मरण करती है। हमारे अराध्य राज राजेश्वर श्री सहस्त्रार्जुन जी की समाधि एवं मन्दिर नमर्दा नदी के किनारे महेश्वर, इंदौर से 90 कि.मी. दूरी पर स्थित है। समाधि पर शिवलिंग स्थापित है। हजारों वषों से अखण्ड 11 नन्दा द्वीप मंदीर में प्रज्जवलित है। भारत का विशाल जायसवाल समाज भी स्वयं को हैहय चंन्द्रवंशीय क्षत्रिय मानकर श्री सहस्त्रार्जुन को अपना अराध्य मानता है। प्राचिन और मध्यकालीन भारत की राजनीति, कला एवं स्थापत्य में हैहय और उनके कलचुरी वशंजों का विशिष्ट योगदान रहा है। कलचुरी वशंजों ने लगभग 800 वर्ष (1075 से 1800 ई.) तक अनवरत शासन किया है। वर्तमान छत्तीसगढ स्थित बिलासपुर से मात्र 28 कि.मी. दूर रतनपुर में तत्कालीन कलचुरि नरेशों द्वारा स्थापित उनकी कुलदेवी महामाया का विशाल मंदीर है। आज भी जिसके दर्शन के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। कलचुरि नरेश का इतिहास गौरवशाली इतिहास जबलपुर के रानी दुर्गावती संग्राहलय में संग्रहित है। तत्कालीन कलचुरि नरेश के दो बेटे 18-18 गढ के शासक थे। दोनो सम्राज्य मिलकर वर्तमान छत्तीसगढ प्रदेश हैं।

भागवत पुराण, मतस्यपुराण, विष्णुपुराण, वायुपुराण महाकाव्यों से हैहय वंश का प्ररंभिक इतिहास ज्ञात होता है। हैहय-जन चन्द्रवंश की यदु कुलीन परम्परा से संबंधित रहे हैं। महाभारत-युद्ध से कई शताब्दियों पूर्व मनु परम्परा में सातवें मनु वैवस्तव का शासन प्रारंभ हुआ। यह मनुविवस्वान (सर्य) के पुत्र थे। जिससे सूर्यकुल का प्रादुर्भाव हुआ। मनु की एक मात्र पुत्री इला का विवाह सोम (चंद्रमा) के पुत्र बुध से हुआ था जिससे चन्द्रवंश का प्ररम्भ हुआ। उनके वंश के क्रम से पुरूरवा, ओयु, नहुष एवं ययाति हुए। ययाति के पांच पुत्र युदु , तर्वसु , पुरू , अनु व द्रहयु हुए। बङे पुत्र यदु से यादव वंश चला। यदु के दो प्रमुख पुत्र क्रोष्टु एवं सहस्त्राजीत थे। सहस्त्राजीत मनु से आठवीं पीढी में हुए। उनकी तीन पीढी उपरान्त शतजित नामक राजा हुए। 

शतजित से हैहय, हय एवं बेणुहय नामक तीन पुत्र हुए। संभवत: उनके नाम पर सुप्रसिद्ध हैहय वंश चला। उनके उपरान्त उनके वंश में धर्मनत्र, कुन्ति, साहंज एवं महिष्मन्त नामक राजा हुए। महिष्मन्त ने नर्मदा में महिष्मति (आधुनिक महेश्वर) नामक नगर बसाया। यही नगर हैहय नृपतियों की राजधानी बनी। नागों ने अपनी एक राजकुमारी नर्मदा का विवाह अयोध्या के शक्तिशाली राजकुमार पुरूकुत्स से करके सूर्यवंशी इक्ष्वाकु शक्ति का मालवा व निमाङ क्षेत्र में राजनीतिक प्रभाव स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। यह स्थिति देख चंद्रवंशी यदुकुलीन हैहयों ने गंधर्वों से हाथ मिला लिया। उनके वीर पुरूष महिष्मन्त ने इक्ष्वाकुओं से यह क्षेत्र छीनकर एक शक्तिशाली हैहय सम्राज्य की नींव डाली उसके उत्तराधिकारी भद्रश्रेण्य और भी प्रतापी हुए। उन्होंने एक ओर तो पौरवों को परास्त किया, दूसरी तरफ काशी पर अधिप्त्य स्थापित किया।


दुर्दुम के उपरान्त कनक के चार पुत्रों में सबसे बङे कुतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन का उत्तराधिकार प्राप्त किया। यह एक शिष्ट एवं सौम्य नृपति थे। भार्गव वंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे। भार्गव नेता जमदाग्नि ॠषि से इनके मधुर संबंध थे। कृतवीर्य ने उन्हें कपिला नामक धेनु दान में दी थी। कृतवीर्य के पुत्र अर्जुन थे। कृतवीर्य के पुत्र होने के कारण उन्हें कार्त्तवीर्याजुन भी कहा गया। कार्त्तवीर्याजुन भरतीय इतिहास एवं हैहय वंश के एक अत्यंत उल्लेखनीय एवं प्रतापी शासक सिद्ध हुए।

कार्त्तवीर्याजुन का सांस्कृतिक योगदान कम नहीं है। ये एक महान तांत्रिक थे। उनके द्वारा प्रवर्तित कार्त्तवीर्य तंत्र बङा प्रसिद्ध हुआ। एक बार अपनी रानियों के साथ जलक्रीङा करते हुए उन्होंने नर्मदा के बहाव को विपरीत दिशा में मोङ दिया था जिस कारण लंकेश्वर की पूजा सामग्री बह गयी थी। रावण ने क्रोध में सहस्त्रबाहू पर आक्रमण कर दिया था। रावण पराजित होकर ३ माह उनके बंदीगृह में पङा रहा। अंतत: महर्षि पुलस्य एवं राजमाता की मध्यस्थता से ही वह मुक्त हो सका।

कार्त्तवीर्याजुन ने अपनी अराधना से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय सहस्त्रार्जुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था। इस कारण उसका नाम श्री सहस्त्रार्जुन पङा।



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श्री सहस्त्रार्जुन का नाम भारत की अनेक जातियां अत्यंत श्रद्धा से स्मरण करती है। हमारे अराध्य राज राजेश्वर श्री सहस्त्रार्जुन जी की समाधि एवं मन्दिर नमर्दा नदी के किनारे महेश्वर, इंदौर से 90 कि.मी. दूरी पर स्थित है। समाधि पर शिवलिंग स्थापित है। हजारों वषों से अखण्ड 11 नन्दा द्वीप मंदीर में प्रज्जवलित है। भारत का विशाल जायसवाल समाज भी स्वयं को हैहय चंन्द्रवंशीय क्षत्रिय मानकर श्री सहस्त्रार्जुन को अपना अराध्य मानता है। प्राचिन और मध्यकालीन भारत की राजनीति, कला एवं स्थापत्य में हैहय और उनके कलचुरी वशंजों का विशिष्ट योगदान रहा है। कलचुरी वशंजों ने लगभग 800 वर्ष (1075 से 1800 ई.) तक अनवरत शासन किया है। वर्तमान छत्तीसगढ स्थित बिलासपुर से मात्र 28 कि.मी. दूर रतनपुर में तत्कालीन कलचुरि नरेशों द्वारा स्थापित उनकी कुलदेवी महामाया का विशाल मंदीर है।
पुराणों में उल्लेख है कि श्री सहस्त्रार्जुन सात दीपों हैहय क्षत्रिय विघटित होकर 100 से भी अधिक वर्गों में बट गये। इनकी जनसंख्या लगभग बारह करोङ है हैहय जायसवाल समाज भी उनमें से एक है जो अपने गौरवशाली अतीत को समेटे हुए आज भी अपने आदि देव श्री सहस्त्रार्जुन की स्मृति को जीवित     
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