Thursday, 11 July 2013

सु प्रभात

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Tuesday, 2 July 2013

बाल गंगाधर तिलकजी के बाल्यकाल की यह घटना हैः

बाल गंगाधर तिलकजी के बाल्यकाल की यह             
घटना हैः

एक बार वे घर पर अकेले ही बैठे थे
कि अचानक उन्हें चौपड़ खेलने
की इच्छा हुई। किंतु अकेले चौपड़ कैसे खेलते?    
अतः उन्होंने घर के खंभे
को अपना साथी बनाया। वे दायें हाथ से खंभे  
के लिए और बायें हाथ से अपने लिए खेलने
लगे। इस प्रकार खेलते-खेलते वे दो बार हार
गये।

दादी माँ दूर से यह सब नजारा देख रही थीं।
हँसते हुए वे बोलीः
"धत् तेरे की... एक खंभे से हार गया?"
तिलकजीः "हार गया तो क्या हुआ?
मेरा दायाँ हाथ खंभे के हवाले था और मुझे
दायें हाथ से खेलने की आदत है। इसीलिए
खंभा जीत गया, नहीं तो मैं जीतता।"
कैसा अदभुत था तिलकजी का न्याय ! जिस
हाथ से अच्छे से खेल सकते थे उससे खंभे के
पक्ष में खेले और हारने पर सहजता से हार
भी स्वीकार कर ली।

महापुरुषों का बाल्यकाल भी नैतिक गुणों से
भरपूर ही हुआ करता है।

इसी प्रकार एक बार छः मासिक परीक्षा में
तिलकजी ने प्रश्नपत्र के सभी प्रश्नों के
सही जवाब लिख डाले।

जब परीक्षाफल घोषित हुआ तब
विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए
भी बाँटे जा रहे थे। जब तिलक
जी की कक्षा की बारी आयी तब पहले नंबर
के लिए तिलकजी का नाम घोषित किया गया।
ज्यों ही अध्यापक तिलकजी को बुलाकर
इनाम देने लगे, त्यों ही बालक तिलकजी रोने
लगे।

यह देखकर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ ! जब
अध्यापक ने तिलकजी से रोने का कारण
पूछा तो वे बोलेः

"अध्यापक जी ! सच बात तो यह है
कि सभी प्रश्नों के जवाब मैंने नहीं लिखे हैं।
आप सारे प्रश्नों के सही जवाब लिखने के
लिए मुझे इनाम दे रहे हैं, किंतु एक प्रश्न
का जवाब मैंने अपने मित्र से पूछकर
लिखा था। अतः इनाम का वास्तविक हकदार
मैं नहीं हूँ।"
अध्यापक प्रसन्न होकर तिलकजी को गले
लगाकर बोलेः

"बेटा ! भले तुम्हारा पहले नंबर के लिए
इनाम पाने का हक नहीं बनता, किंतु यह
इनाम अब तुम्हें सच्चाई के लिए देता हूँ।"
ऐसे सत्यनिष्ठ, न्यायप्रिय और ईमानदार
बालक ही आगे चलकर महान कार्य कर पाते
हैं।

प्यारे विद्यार्थियो ! तुम ही भावी भारत के
भाग्य विधाता हो। अतः अभी से अपने जीवन
में सत्यपालन, ईमानदारी, संयम, सदाचार,
न्यायप्रियता आदि गुणों को अपना कर
अपना जीवन महान बनाओ। तुम्हीं में से
कोई लोकमान्य तिलक तो कोई सरदार
वल्लभभाई पटेल, कोई शिवाजी तो कोई
महाराणा प्रताप जैसा बन सकता है।

तुम्हीं में से कोई ध्रुव, प्रह्लाद, मीरा,
मदालसा का आदर्श पुनः स्थापित कर
सकता है।

उठो, जागो और अपने इतिहास-प्रसिद्ध
महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने
जीवन को भी दिव्य बनाने के मार्ग पर
अग्रसर हो जाओ.... भगवत्कृपा और संत-

महापुरुषों के आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं। —
बाल गंगाधर तिलकजी के बाल्यकाल की यह
घटना हैः

एक बार वे घर पर अकेले ही बैठे थे
कि अचानक उन्हें चौपड़ खेलने
की इच्छा हुई। किंतु अकेले चौपड़ कैसे खेलते?
अतः उन्होंने घर के खंभे
को अपना साथी बनाया। वे दायें हाथ से खंभे
के लिए और बायें हाथ से अपने लिए खेलने
लगे। इस प्रकार खेलते-खेलते वे दो बार हार
गये।

दादी माँ दूर से यह सब नजारा देख रही थीं।
हँसते हुए वे बोलीः
"धत् तेरे की... एक खंभे से हार गया?"
तिलकजीः "हार गया तो क्या हुआ?
मेरा दायाँ हाथ खंभे के हवाले था और मुझे
दायें हाथ से खेलने की आदत है। इसीलिए
खंभा जीत गया, नहीं तो मैं जीतता।"
कैसा अदभुत था तिलकजी का न्याय ! जिस
हाथ से अच्छे से खेल सकते थे उससे खंभे के
पक्ष में खेले और हारने पर सहजता से हार
भी स्वीकार कर ली।

महापुरुषों का बाल्यकाल भी नैतिक गुणों से
भरपूर ही हुआ करता है।

इसी प्रकार एक बार छः मासिक परीक्षा में
तिलकजी ने प्रश्नपत्र के सभी प्रश्नों के
सही जवाब लिख डाले।

जब परीक्षाफल घोषित हुआ तब
विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए
भी बाँटे जा रहे थे। जब तिलक
जी की कक्षा की बारी आयी तब पहले नंबर
के लिए तिलकजी का नाम घोषित किया गया।
ज्यों ही अध्यापक तिलकजी को बुलाकर
इनाम देने लगे, त्यों ही बालक तिलकजी रोने
लगे।

यह देखकर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ ! जब
अध्यापक ने तिलकजी से रोने का कारण
पूछा तो वे बोलेः

"अध्यापक जी ! सच बात तो यह है
कि सभी प्रश्नों के जवाब मैंने नहीं लिखे हैं।
आप सारे प्रश्नों के सही जवाब लिखने के
लिए मुझे इनाम दे रहे हैं, किंतु एक प्रश्न
का जवाब मैंने अपने मित्र से पूछकर
लिखा था। अतः इनाम का वास्तविक हकदार
मैं नहीं हूँ।"
अध्यापक प्रसन्न होकर तिलकजी को गले
लगाकर बोलेः

"बेटा ! भले तुम्हारा पहले नंबर के लिए
इनाम पाने का हक नहीं बनता, किंतु यह
इनाम अब तुम्हें सच्चाई के लिए देता हूँ।"
ऐसे सत्यनिष्ठ, न्यायप्रिय और ईमानदार
बालक ही आगे चलकर महान कार्य कर पाते
हैं।

प्यारे विद्यार्थियो ! तुम ही भावी भारत के
भाग्य विधाता हो। अतः अभी से अपने जीवन
में सत्यपालन, ईमानदारी, संयम, सदाचार,
न्यायप्रियता आदि गुणों को अपना कर
अपना जीवन महान बनाओ। तुम्हीं में से
कोई लोकमान्य तिलक तो कोई सरदार
वल्लभभाई पटेल, कोई शिवाजी तो कोई
महाराणा प्रताप जैसा बन सकता है।

तुम्हीं में से कोई ध्रुव, प्रह्लाद, मीरा,
मदालसा का आदर्श पुनः स्थापित कर
सकता है।

उठो, जागो और अपने इतिहास-प्रसिद्ध
महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने
जीवन को भी दिव्य बनाने के मार्ग पर
अग्रसर हो जाओ.... भगवत्कृपा और संत-

महापुरुषों के आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं। —
Photo: बाल गंगाधर तिलकजी के बाल्यकाल की यह
घटना हैः

एक बार वे घर पर अकेले ही बैठे थे
कि अचानक उन्हें चौपड़ खेलने
की इच्छा हुई। किंतु अकेले चौपड़ कैसे खेलते?
अतः उन्होंने घर के खंभे
को अपना साथी बनाया। वे दायें हाथ से खंभे
के लिए और बायें हाथ से अपने लिए खेलने
लगे। इस प्रकार खेलते-खेलते वे दो बार हार
गये।

दादी माँ दूर से यह सब नजारा देख रही थीं।
हँसते हुए वे बोलीः
"धत् तेरे की... एक खंभे से हार गया?"
तिलकजीः "हार गया तो क्या हुआ?
मेरा दायाँ हाथ खंभे के हवाले था और मुझे
दायें हाथ से खेलने की आदत है। इसीलिए
खंभा जीत गया, नहीं तो मैं जीतता।"
कैसा अदभुत था तिलकजी का न्याय ! जिस
हाथ से अच्छे से खेल सकते थे उससे खंभे के
पक्ष में खेले और हारने पर सहजता से हार
भी स्वीकार कर ली।

महापुरुषों का बाल्यकाल भी नैतिक गुणों से
भरपूर ही हुआ करता है।

इसी प्रकार एक बार छः मासिक परीक्षा में
तिलकजी ने प्रश्नपत्र के सभी प्रश्नों के
सही जवाब लिख डाले।

जब परीक्षाफल घोषित हुआ तब
विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए
भी बाँटे जा रहे थे। जब तिलक
जी की कक्षा की बारी आयी तब पहले नंबर
के लिए तिलकजी का नाम घोषित किया गया।
ज्यों ही अध्यापक तिलकजी को बुलाकर
इनाम देने लगे, त्यों ही बालक तिलकजी रोने
लगे।

यह देखकर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ ! जब
अध्यापक ने तिलकजी से रोने का कारण
पूछा तो वे बोलेः

"अध्यापक जी ! सच बात तो यह है
कि सभी प्रश्नों के जवाब मैंने नहीं लिखे हैं।
आप सारे प्रश्नों के सही जवाब लिखने के
लिए मुझे इनाम दे रहे हैं, किंतु एक प्रश्न
का जवाब मैंने अपने मित्र से पूछकर
लिखा था। अतः इनाम का वास्तविक हकदार
मैं नहीं हूँ।"
अध्यापक प्रसन्न होकर तिलकजी को गले
लगाकर बोलेः

"बेटा ! भले तुम्हारा पहले नंबर के लिए
इनाम पाने का हक नहीं बनता, किंतु यह
इनाम अब तुम्हें सच्चाई के लिए देता हूँ।"
ऐसे सत्यनिष्ठ, न्यायप्रिय और ईमानदार
बालक ही आगे चलकर महान कार्य कर पाते
हैं।

प्यारे विद्यार्थियो ! तुम ही भावी भारत के
भाग्य विधाता हो। अतः अभी से अपने जीवन
में सत्यपालन, ईमानदारी, संयम, सदाचार,
न्यायप्रियता आदि गुणों को अपना कर
अपना जीवन महान बनाओ। तुम्हीं में से
कोई लोकमान्य तिलक तो कोई सरदार
वल्लभभाई पटेल, कोई शिवाजी तो कोई
महाराणा प्रताप जैसा बन सकता है।

तुम्हीं में से कोई ध्रुव, प्रह्लाद, मीरा,
मदालसा का आदर्श पुनः स्थापित कर
सकता है।

उठो, जागो और अपने इतिहास-प्रसिद्ध
महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने
जीवन को भी दिव्य बनाने के मार्ग पर
अग्रसर हो जाओ.... भगवत्कृपा और संत-

महापुरुषों के आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं। —

भगत सिंह के जीवन से जुडी कुछ महत्वपूर्ण बातें -

Photo: भगत सिंह के जीवन से जुडी कुछ महत्वपूर्ण
बातें -
१. भगतसिंह ने एक राष्ट्रवादी और
देशभक्त परिवार में जन्म लिया था !!
भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह एक लेखक
तथा एक देशभक्त नागरिक थे !! उनके
पिता भी एक बहुत बडे देशभक्त थे !!
उनका भगतसिंह के जीवन पर असर पड़ा !!
उनके बारे में प्रसिद्ध है
कि वो किताबों को पढते
नहीं बल्कि निगलते थे !!
२. भगत सिंह ने ५ साल से लेकर साढ़े 23
साल की उम्र तक (लगभग 18 वर्ष तक)
पूरी तरह से सजग और चैतन्य इंसान
की तरह जिया !!
३. भगत सिंह के लिए देश का मतलब देश
की मिट्टी से, इसके शहर-गाँव से नहीं था,
बल्कि देश की जनता से था !! इसीलिए
भगत सिंह मानते थे कि देश पर चाहे
कालों का राज रहे या गोरों का, जब तक
यह व्यवस्था नहीं बदलेगी तब तक भारत
की हालत में सुधार नहीं होगा !! भगत
सिंह पहले ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे, जिनमें
सबसे पहले सामाजिक चेतना जागी थी !!
इनसे पहले के क्रांतिकारी 'भारत
माता की जय' तक सीमित थी !!
४. गाँधी का रास्ता अंग्रेजों को बहुत
अच्छा लगता था,
क्योंकि गाँधी अंग्रेजों के शोषण को खत्म
करने के लिए कोई कोशिश नहीं कर रहे
थे !! अंग्रेज़ों को मालूम था कि यदि भगत
सिंह ज़िंदा रहे, या भगत सिंह का विचार
ज़िंदा रहा तो यहाँ की जनता हमसे
शोषण का हिसाब माँगेंगी !! इसीलिए
अंग्रेजों ने भारत को विभाजन
का रास्ता का दिखाया जिसका फायदा
मेरा मानना है कि विभाजन
का जिम्मेदार अकेले
जिन्ना नहीं बल्कि उसके साथ-साथ
ब्रिटिश सरकार और गाँधी-नेहरु जैसे लोग
भी थे !! गाँधी इसलिए क्योंकि इन्होंने
उस समय कुछ नहीं बोला जब उन्हें
बोलना चाहिए था !! गाँधी यदि पटेल-
नेहरू की सत्तालोलुपता को समझकर
विभाजन को रोक लेते तो आज देश
की दशा कुछ और ही होती !!
५. भगत सिंह ने एक महान काम यह
भी किया कि सबकुछ अपनी डायरी में
लिखकर रखा !! जिससे आज भगत सिंह के
वास्तविक दस्तावेज और असलियत हमारे
सामने है !! भगत ने फाँसी से मरने से पहले
भी लिखा कि मेरे मरने के बाद
क्या करना है !! भगत सिंह पहले ऐसे
क्रांतिकारी थे, जो कहते थे कि देश
को आज़ाद होने के लिए
मेरा मरना ज़रूरी है !! भगत सिंह ने
अपनी फाँसी खुद चुनी थी !! यहाँ पर
भी मेरा मानना है कि अगर गाँधी चाहते
तो उन्हें बचा सकते थे मगर वो अपने
ढोंगी अहिंसा नीति के दंभ में चूर थे !!
६. भगत सिंह 'बम-बारूद' के खिलाफ थे !! वे
कहते थे कि यदि पुलिस जनता पर प्रहार
नहीं करेगी, तो जनता पर भी उन पर
पत्थर नहीं फेंकेगी, पुलिस-स्टेशन को बम से
नहीं उड़ायेगी !! हिंसा की शुरूआत
हमेशा पुलिस/स्टेट/ब्रिटिश करती थी !!
७. आज तक पूरी दुनिया में भगतसिंह से कम
उम्र में किताबें पढ़कर अपने मौलिक
विचारों का प्रवर्तन करने की कोशिश
किसी ने नहीं की !!
८. हिन्दुस्तान में सबसे अधिक किताबें
भगत सिंह पर लिखी गई हैं !! भारत
की लगभग ��र ���ाषा में भगत सिंह
के ऊपर किताबें हैं !!
९. भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर
नहीं थे परन्तु वे कार्ल मार्क्स के
सिद्धान्तों से पूरी तरह प्रभावित थे !!
इसी कारण से उन्हें
पूँजीपतियों तथा अंग्रेजों की मजदूरों के
प्रति शोषण की नीति पसन्द
नहीं आती थी !! भगत सिंह चाहते थे
कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिये
कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय
में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है मगर
उसमें कोई खून-खराबा ना हो !! ८ अप्रैल,
१९२९ को उन्होंने बटुकेश्वर नाथ के साथ
मिल कर केन्द्रीय असेम्बली में एक ऐसे
स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न
था !! बम फेंकने के बाद भगत सिंह चाहते
तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले
ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार
है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो !! बम
फटने के बाद उन्होंने "इंकलाब
जिन्दाबाद !! साम्राज्यवाद
मुर्दाबाद !!" का नारा लगाया और अपने
साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये !!
इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और
दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया !!
१०. जेल के अंदर जब कैदियों को ठीक
भोजन नहीं मिलता था और सुविधाएं
जो मिलनी चाहिए थीं, नहीं मिलती थीं,
तो भगतसिंह ने आमरण अनशन किया !!
भगत सिंह व उनके साथियों ने ६४
दिनों तक भूख हडताल की !! उनके एक
साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख
हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे !!
अंततः अंग्रेजों को झुकना पडा !!
११. भगतसिंह को गांधी जी का धीरे धीरे
चलने वाला रास्ता पसंद नहीं था !!
लेकिन भगतसिंह हिंसा के रास्ते पर
नहीं थे !! उनके भरी अदालत में जिस बयान
के कारण उनको फांसी की सजा मिली,
उतना बेहतर बयान आज तक हिंदुस्तान के
किसी भी राजनीतिक कैदी ने
नहीं दिया !!
१२. जब भगत सिंह अंतिम बार अपने
परिवार से मिलें थे, उस समय उन्हें यकीन
हो गया था कि ये उनकी अंतिम मुलाकात
है !! उन्होंने अपने मां से कहा, “बेबेजी,
दादाजी अब ज्यादा दिन तक
नहीं जियेंगे !! आप बंगा जाकर इनके पास
ही रहना !!” सबसे उन्होंने अलग-अलग बात
की !! सबको धैर्य बंधाया, सांत्वना दी !!
अंत में मां को पास बुलाकर हंसते-हंसते
मस्ती भरे स्वर में कहा, ‘‘लाश लेने आप मत
आना !! कुलबीर को भेज देना !! कहीं आप
रो पड़ी तो लोग कहेंगे कि भगत सिंह
की मां रो रही है !! इतना कहकर वे इतने
जोर से हंसे कि जेल अधिकारी उन्हें
फटी आंखों से देखते रह गए !!
१३. फांसी के फंदे पर चढ़ने का फरमान
पहुंचने के बाद जब जल्लाद उनके पास
आया तब वो “राम प्रसाद बिस्मिल”
की जीवनी पढ रहे थे(कुछ
लोगों का मानना है कि वो लेनिन
की जीवनी पढ रहे थे) !! उन्होंने
बिना सिर उठाए हुए उससे
कहा 'ठहरो भाई, मैं राम प्रसात
बिस्मिल की जीवनी पढ़ रहा हूं !! एक
क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल
रहा है !! थोड़ा रुको !!' ऐसा इंसान जिसे
कुछ पलों के बाद फांसी होने वाली है उसके
बावजूद वो किताबें पढ़ रहा है, ये
कल्पना कर पाना भी बेहद मुश्किल है !!
१४. अंततः फांसी के निर्धारित समय से १
दिन पहले २३ मार्च १९३१ को शाम में
करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिंह
तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु
को फाँसी दे दी गई !! फाँसी पर जाते
समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे -
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे !!
मेरा रँग दे बसन्ती चोला !! माय रँग दे
बसन्ती चोला !! 

लाईक लाईक

जो हिन्दू राम का नहीं वो इंसान किसी काम का नहीं
 जो हिन्दू राम का नहीं वो इंसान किसी काम का नहीं
भगत सिंह के जीवन से जुडी कुछ महत्वपूर्ण
बातें -
१. भगतसिंह ने एक राष्ट्रवादी और
देशभक्त परिवार में जन्म लिया था !!
भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह एक लेखक
तथा एक देशभक्त नागरिक थे !! उनके
पिता भी एक बहुत बडे देशभक्त थे !!
उनका भगतसिंह के जीवन पर असर पड़ा !!
उनके बारे में प्रसिद्ध है
कि वो किताबों को पढते
नहीं बल्कि निगलते थे !!
२. भगत सिंह ने ५ साल से लेकर साढ़े 23
साल की उम्र तक (लगभग 18 वर्ष तक)
पूरी तरह से सजग और चैतन्य इंसान
की तरह जिया !!
३. भगत सिंह के लिए देश का मतलब देश
की मिट्टी से, इसके शहर-गाँव से नहीं था,
बल्कि देश की जनता से था !! इसीलिए
भगत सिंह मानते थे कि देश पर चाहे
कालों का राज रहे या गोरों का, जब तक
यह व्यवस्था नहीं बदलेगी तब तक भारत
की हालत में सुधार नहीं होगा !! भगत
सिंह पहले ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे, जिनमें
सबसे पहले सामाजिक चेतना जागी थी !!
इनसे पहले के क्रांतिकारी 'भारत
माता की जय' तक सीमित थी !!
४. गाँधी का रास्ता अंग्रेजों को बहुत
अच्छा लगता था,
क्योंकि गाँधी अंग्रेजों के शोषण को खत्म
करने के लिए कोई कोशिश नहीं कर रहे
थे !! अंग्रेज़ों को मालूम था कि यदि भगत
सिंह ज़िंदा रहे, या भगत सिंह का विचार
ज़िंदा रहा तो यहाँ की जनता हमसे
शोषण का हिसाब माँगेंगी !! इसीलिए
अंग्रेजों ने भारत को विभाजन
का रास्ता का दिखाया जिसका फायदा
मेरा मानना है कि विभाजन
का जिम्मेदार अकेले
जिन्ना नहीं बल्कि उसके साथ-साथ
ब्रिटिश सरकार और गाँधी-नेहरु जैसे लोग
भी थे !! गाँधी इसलिए क्योंकि इन्होंने
उस समय कुछ नहीं बोला जब उन्हें
बोलना चाहिए था !! गाँधी यदि पटेल-
नेहरू की सत्तालोलुपता को समझकर
विभाजन को रोक लेते तो आज देश
की दशा कुछ और ही होती !!
५. भगत सिंह ने एक महान काम यह
भी किया कि सबकुछ अपनी डायरी में
लिखकर रखा !! जिससे आज भगत सिंह के
वास्तविक दस्तावेज और असलियत हमारे
सामने है !! भगत ने फाँसी से मरने से पहले
भी लिखा कि मेरे मरने के बाद
क्या करना है !! भगत सिंह पहले ऐसे
क्रांतिकारी थे, जो कहते थे कि देश
को आज़ाद होने के लिए
मेरा मरना ज़रूरी है !! भगत सिंह ने
अपनी फाँसी खुद चुनी थी !! यहाँ पर
भी मेरा मानना है कि अगर गाँधी चाहते
तो उन्हें बचा सकते थे मगर वो अपने
ढोंगी अहिंसा नीति के दंभ में चूर थे !!
६. भगत सिंह 'बम-बारूद' के खिलाफ थे !! वे
कहते थे कि यदि पुलिस जनता पर प्रहार
नहीं करेगी, तो जनता पर भी उन पर
पत्थर नहीं फेंकेगी, पुलिस-स्टेशन को बम से
नहीं उड़ायेगी !! हिंसा की शुरूआत
हमेशा पुलिस/स्टेट/ब्रिटिश करती थी !!
७. आज तक पूरी दुनिया में भगतसिंह से कम
उम्र में किताबें पढ़कर अपने मौलिक
विचारों का प्रवर्तन करने की कोशिश
किसी ने नहीं की !!
८. हिन्दुस्तान में सबसे अधिक किताबें
भगत सिंह पर लिखी गई हैं !! भारत
की लगभग ��र ���ाषा में भगत सिंह
के ऊपर किताबें हैं !!
९. भगत सिंह यद्यपि रक्तपात के पक्षधर
नहीं थे परन्तु वे कार्ल मार्क्स के
सिद्धान्तों से पूरी तरह प्रभावित थे !!
इसी कारण से उन्हें
पूँजीपतियों तथा अंग्रेजों की मजदूरों के
प्रति शोषण की नीति पसन्द
नहीं आती थी !! भगत सिंह चाहते थे
कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिये
कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय
में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है मगर
उसमें कोई खून-खराबा ना हो !! ८ अप्रैल,
१९२९ को उन्होंने बटुकेश्वर नाथ के साथ
मिल कर केन्द्रीय असेम्बली में एक ऐसे
स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न
था !! बम फेंकने के बाद भगत सिंह चाहते
तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले
ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार
है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो !! बम
फटने के बाद उन्होंने "इंकलाब
जिन्दाबाद !! साम्राज्यवाद
मुर्दाबाद !!" का नारा लगाया और अपने
साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिये !!
इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और
दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया !!
१०. जेल के अंदर जब कैदियों को ठीक
भोजन नहीं मिलता था और सुविधाएं
जो मिलनी चाहिए थीं, नहीं मिलती थीं,
तो भगतसिंह ने आमरण अनशन किया !!
भगत सिंह व उनके साथियों ने ६४
दिनों तक भूख हडताल की !! उनके एक
साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख
हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे !!
अंततः अंग्रेजों को झुकना पडा !!
११. भगतसिंह को गांधी जी का धीरे धीरे
चलने वाला रास्ता पसंद नहीं था !!
लेकिन भगतसिंह हिंसा के रास्ते पर
नहीं थे !! उनके भरी अदालत में जिस बयान
के कारण उनको फांसी की सजा मिली,
उतना बेहतर बयान आज तक हिंदुस्तान के
किसी भी राजनीतिक कैदी ने
नहीं दिया !!
१२. जब भगत सिंह अंतिम बार अपने
परिवार से मिलें थे, उस समय उन्हें यकीन
हो गया था कि ये उनकी अंतिम मुलाकात
है !! उन्होंने अपने मां से कहा, “बेबेजी,
दादाजी अब ज्यादा दिन तक
नहीं जियेंगे !! आप बंगा जाकर इनके पास
ही रहना !!” सबसे उन्होंने अलग-अलग बात
की !! सबको धैर्य बंधाया, सांत्वना दी !!
अंत में मां को पास बुलाकर हंसते-हंसते
मस्ती भरे स्वर में कहा, ‘‘लाश लेने आप मत
आना !! कुलबीर को भेज देना !! कहीं आप
रो पड़ी तो लोग कहेंगे कि भगत सिंह
की मां रो रही है !! इतना कहकर वे इतने
जोर से हंसे कि जेल अधिकारी उन्हें
फटी आंखों से देखते रह गए !!
१३. फांसी के फंदे पर चढ़ने का फरमान
पहुंचने के बाद जब जल्लाद उनके पास
आया तब वो “राम प्रसाद बिस्मिल”
की जीवनी पढ रहे थे(कुछ
लोगों का मानना है कि वो लेनिन
की जीवनी पढ रहे थे) !! उन्होंने
बिना सिर उठाए हुए उससे
कहा 'ठहरो भाई, मैं राम प्रसात
बिस्मिल की जीवनी पढ़ रहा हूं !! एक
क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल
रहा है !! थोड़ा रुको !!' ऐसा इंसान जिसे
कुछ पलों के बाद फांसी होने वाली है उसके
बावजूद वो किताबें पढ़ रहा है, ये
कल्पना कर पाना भी बेहद मुश्किल है !!
१४. अंततः फांसी के निर्धारित समय से १
दिन पहले २३ मार्च १९३१ को शाम में
करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिंह
तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु
को फाँसी दे दी गई !! फाँसी पर जाते
समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे -
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे !!
मेरा रँग दे बसन्ती चोला !! माय रँग दे
बसन्ती चोला !!

कस्तूरबा गाँधी

पूरा नामकस्तूरबा गाँधी
अन्य नाम'बा'
जन्म11 अप्रैल सन् 1869
जन्म भूमिकाठियावाड़पोरबंदरभारत
मृत्यु22 फ़रवरी सन् 1944
मृत्यु स्थानआगा ख़ाँ महल, पूनाभारत
अविभावकगोकुलदास मकनजी
पति/पत्नीमहात्मा गाँधी
संतानहरिलाल, मणिलाल, रामदास, देवदास
धर्महिन्दू
आंदोलनभारतीय स्वतंत्रता संग्राम
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